Follow blog on Facebook

Monday, August 09, 2010

Conversation between Chanakya and Ajay - Reflection on Current polity of India.

Creative Commons License
This work is licensed under a Creative Commons Attribution-Noncommercial-No Derivative Works 2.5 India License.

Excerpt from television series of Chanakya. A conversation which touched my heart and set me thinking about its modern relevance in republic of India.





आचार्य विष्णुगुप्त: अजय, पाटलिपुत्र की क्या स्थिति हैं?


आचार्य अजय: विष्णु, पाटलिपुत्र के विद्वान आचार्य, एक एक करके पाटलिपुत्र से प्रयाण कर रहे हैं. 


आचार्य विष्णुगुप्त: क्यों?


आचार्य अजय: अब ऐसा लगने लगा हैं की पाटलिपुत्र में शिक्षक अपनी गरिमाके साथ नहीं रह सकता.


आचार्य विष्णुगुप्त: कारण?


आचार्य अजय:कारण? कारणोंको ढूंढनेका प्रयास करता हूँ तो समझ में नहीं आता दोष नन्द की नीतियों को दूं, या समस्त कारणों को अनिवार्य परिवर्तन समझकर स्वीकार कर लूं. 


आचार्य विष्णुगुप्त: ऐसा क्या हैं जो समझ में नहीं आ रहा हैं, अजय?


आचार्य अजय: विष्णु, शिक्षक को पाटलिपुत्र में इतना असहाय मैंने पहले कभी नहीं देखा था जितना अब देख रहा हूँ. बाल्यकाल से मैं मगध में हो रहे परिवर्तनों का साक्षी रहा हूँ. और जब जब मैंने मगध में हो रहे परिवर्तनों के इतिहास पर दृष्टि डाली हैं तो पाया हैं की समाज को किसी परिवर्तन की प्रतीक्षा थी.और तथागत के धम्म और महावीर के सम्प्रदाय ने मगध को इस परिवर्तन की भूमि प्रदान की. मगध के समाज ने तथागत एवं महावीर के दर्शन को स्वीकार करना प्रारंभ किया. और इन दोनों के विचारों से अनुप्राणित समाज का एक वर्ग उपासक के रूप में उभर कर सामने आया. नविन सम्रदायिक दर्शन और और उपासक वर्ग के उदय के कारण उन परंपराओं और प्रणालियों को ठेंस पहुंची जिनका पालन समाज अबतक करते आया था. धार्मिक क्षितिज पर नविन संप्रदायों के उदय से समाज को ऐसा लगने लगा की अब समाज वर्णबंधन की दासता से मुक्त हो रहा हैं. इन नविन मतों को उनके दार्शनिक धरातलपर कितने लोगोंने स्वीकार किया, यह कह पाना कठिन हैं. पर ये स्पष्ट था की समाज के एक वैभवसंपन्न वर्ग ने पुरातनवादियों द्वारा उत्पीडन और शोषण से मुक्ति एवं सामाजिक समता स्थापित करने के प्रयास में नविन संप्रदायों को स्वीकार किया. और इसी वर्ग ने प्राचीन परंपराओंकी अवहेलना करना प्रारंभ किया. अतः अपनी परंपराओं के प्रति आस्थावान वर्ग ने इन उद्यमान दार्शनिक मतों का खंडन करना प्रारंभ किया. 


परिणामस्वरूप, सांप्रदायिक मतों में घर्षण प्रारंभ हुआ, सांप्रदायिक आस्था के नाम पर समाज में विघटन की प्रक्रिया सक्रिय हुई. और समाज में विभिन्न उपासना पद्धति के उपासकों में भेद होने लगा. व्यक्ति व्यक्ति से कटने लगा. और परंपरावादी वर्ग, इससे पहले की वह इस आघात से संभले, उसपर एक और कठोर आघात तब हुआ, जब अपनी सत्ताको स्थिर करने में प्रयत्नशील मगध के राजपरिवारों ने अपने स्वार्थ के लिए, सम्प्रदायोंके प्रति पक्षपाती दृष्टिकोण अपनाया. और नंदों के शासनकाल में सांप्रदायिक पक्षपात अपने चरमोत्कर्ष पे पहुंचा. नंद्कुल ने परंपरावादियों से अपनी रक्षा के लिए परंपरा विरोधियों को प्रोत्साहन और राजनैतिक संरक्षण दिया. जब की वे भलीभांति जानते थे की मगध की सामाजिक एवं राजकीय परम्पराएं कभी उनके शासन को स्वीकार नहीं करेंगी. और सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को रोक पाने में असमर्थ अपनी प्राचीन परंपराओं और जीवन-मूल्यों का निर्वाह करनेवाला वर्ग स्वयं को पराजित महसूस करने लगा. 


आचार्य विष्णुगुप्त: क्या तुम्हे नहीं लगता अजय के  दर्शन के धरातल पर, व्यक्ति व समाज किसीभी सांप्रदायिक मत का स्वीकार करने के लिए स्वतंत्र हैं?


आचार्य अजय: मानता हूँ. पर नवीन और पुरातन का संघर्ष केवल मतान्तरों तक सीमित नहीं हैं, विष्णु. धार्मिक क्षितिज पर परिवर्तन की प्रक्रिया सामाजिक जीवन में धीरे धीरे एक और परिवर्तन ला रही थी. जिसके परिणाम स्वरुप अपनी प्राचीन प्रणाली का निर्वाह करनेवाले छात्रों के अतिरिक्त अब भिक्षुओं के भिक्षापात्र भी भिक्षा के लिए नित्य द्वारों पर उठने लगे. विष्णु, मैं दृढता के साथ तो नहीं कह सकता की इससे पाटलिपुत्र के परिवारों के आर्थिक व्यवस्था पर कितना प्रभाव पड़ा होगा, पर इतना मैं विश्वास के साथ अवश्य कह सकता हूँ की इससे छात्रों के भिक्षापात्र में अन्न का भार कम हुआ हैं. 


पर पाटलिपुत्र का आचार्य-वर्ग इससे विचलित नहीं हुआ. जिस तथ्य से पाटलिपुत्र का आचार्यवर्ग प्रभावित हो रहा था, वो ये की पाटलिपुत्र में अब भिन्न-भिन्न साम्प्रदायिक आस्था वाले परिवारों के द्वार पर छात्रों में भेद होने लगा. और अपने प्राचीन परंपराओं में आस्था रखने वाले छात्र, उपासकों के द्वारों पर भिक्षा मांगनेसे कतराने लगे. और उपासकों की संतानों ने भी भिक्षा मांगने के लिया उपासकों के घरों को प्राथमिकता देना प्रारंभ किया. स्थिति यहाँ तक पहुंची की अब भिक्षा सांप्रदायिक विचारों से अप्रभावित नहीं रहीं. और जब समाज की सांप्रदायिक आस्था में परिवर्तन हुआ, तो ये परिवर्तित वर्ग उन परंपराओं का निर्वाह क्यों करे जिनमे उसकी श्रद्धा नहीं रहीं. और जिनकी अब वेदों में आस्था नहीं रही, वे अब वेदों के अध्ययन और यज्ञ को प्रोत्साहन क्यों दें? और भिक्षा के अन्न से उदार्निर्वाह करनेवाला शिक्षक इन स्थितियों में परिवर्तनों को असहायता पूर्वक देखता रहा. और नाही मगध की सत्ता और नाही मगध का उन्नतिशील समाज इन परिवर्तनों में ये देख पा रहा था की अपनी प्राचीन परंपराओं के प्रति समर्पित मगध के अनेक निर्धन शिक्षक पर्याप्त वेदाभ्यासी छात्रों के अभाव में कठिनाई और आभाव का जीवन जी रहे थे. 


ये कम था, की धन लेकर शिक्षा देनेवाले उपाध्यायों के वर्ग को पाटलिपुत्र के संपन्न वर्ग ने प्रोत्साहन देना प्रारंभ किया. और अपने प्राचीन परंपराओं को छोड़ रहे परिवारों में इन्ही उपाध्यायों से शिक्षा लेनेका प्रचलन प्रारंभ हो गया. शिक्षा स्वर्ण के बदले में सुलभ होने लगी. ब्रह्मचर्य के व्रतों की उपेक्षा होने लगी. और इसी के साथ ब्रह्मचारियों द्वारा भिक्षा मांगकर छात्र-जीवन निर्वाह करने की प्रणालीका टूटना प्रारंभ हुआ. दुर्भाग्य से उपाध्यायों ने आचार्यों सा कठिन जीवन जीने की अपेक्षा सम्पन्नता से जीवन जीने का मार्ग अपनाया. और जो आचार्य इन बदल रही परिस्थितियों से जूझ नहीं पाए, उन्होंने भी उपाध्यायों की जीवन शैली को अपनाना शुरू कर दिया. फलस्वरूप उपाध्यायों की संख्या बढती गयी, छात्र भी इन उपाध्यायों के प्रति आकर्षित होते गए. और इन परिस्थितियों में विष्णु, पिछले कुछ वर्षों में आचार्यों ने काशीकी ओर परायण करना प्रारंभ कर दिया, जहाँ आचार्य परंपरा दृढ हैं. जहाँ वेदज्ञ आचार्यों का आजभी सम्मान होता हैं. 


आचार्य विष्णुगुप्त: और इन परिस्थितियों में पाटलिपुत्र के आचार्य वर्ग ने उपाध्यायों का विरोध भी नहीं किया होगा?


आचार्य अजय: जिसने भिक्षा के अन्न पर पलने की प्रवृत्ति को स्वीकृति दी हो, वह आचार्य उपाध्यायों का विरोध क्यों करेगा? और उपाध्यायों की परंपरा तो अपने समाज में प्राचीन काल से विद्यमान हैं, विष्णु. महत्व और प्रोत्साहन मिलते ही वो आचार्य-व्यवस्था का पर्याय बन गयी. 


आचार्य विष्णुगुप्त: पर इसमें मगध की सत्ता को सर्वथा दोषी कैसे ठहराया जा सकता हैं?


आचार्य अजय: पर मगध की सत्ता ने कभी इन परिवर्तनों का विरोध भी तो नहीं किया. उलटे नंदकुल का राजपरिवार भिन्न-भिन्न संप्रदायों को राजकीय सुरक्षा, अनुदान, समबल प्रदान कर उनका समर्थन प्राप्त करते रहे. उन्हें प्रसन्न करते रहे. धनानंद के राज में शिक्षक पीड़ित हो रहे हैं और नविन संप्रदायों का स्वागत हो रहा हैं. क्यों? क्यों मगध की सत्ता केवल इन्ही संप्रदायों के प्रति उदारता दिखा रही हैं? क्यों मगध की वर्त्तमान सत्ता उनका समर्थन प्राप्त कर रही हैं जो परंपरावादियों का विरोध कर रहे हैं? स्पष्ट हैं, सत्ता उन्हें सुरक्षा दे रही हैं और और वे नंदों के शासन को समर्थन. नंद संप्रदायों का अपने हित के लिए शस्त्रों के रूप में उपयोग कर रहे हैं. और किसीमे साहस नहीं हैं की वह नंदों से टकराए. एक एक कर, आचार्य जा रहे हैं. और शिक्षा पतन के कगार पे खड़ी किसी धक्के की प्रतीक्षा कर रही हैं. 
---------------------------------------------------------------------------------------------


Vishnugupta (Chanakya): Ajay, what is the situation in Patliputra?

Ajay: Vishnu, the learned teachers and professors of Patliputra are moving out of Magadh one by one.

Chanakya: Why so?

Ajay: It seems that Teachers can no longer stay in Magadh with dignity.

Chanakya: Why?

Ajay: I don't know whom to blame here? Nanda's policies OR changing tides of time, which have to accept and move on.

Chanakya: What is it that is so difficult to comprehend, Ajay?

Ajay: Vishnu, I have never seen teachers (Brahmins) so helpless in Magadh before. I have been witnessing the changes in Magadhan society since childhood. Upon studying the history of Magadha and the patterns of changes, I have concluded that society was in need of some change. The philosophy and ideology of Siddharta Gautam and Mahavir provided the ground the necessary change in Magadh. The magadhan society started adopting the ideology of Buddha and Mahavir. Inspired by the thoughts of these two great men, a new section of society evolved and came into existence in form of "Upasakas (followers)". Due to the rise of new religious philosophy and followers, the orthodox system and philosophy which was being followed by society till date was hurt. The rise of new religions on the socio-economic horizons of Magadha made people believe that the "Varnashrama system" will collapse. 

I do not know how many people accepted these new "religion" purely on philosophical basis. But what is clear is that a section of rich society started patronizing these new ideologies to get rid of oppression by the orthodox varnashrama system. And this strata of society started castigating the criticizing the orthodox system. As a reply, the upholders of orthodox system started criticizing and debating with the proponents of new system too. This resulted in friction amongst different opinions of society. And fissures based on faith and beliefs started emerging in previously uniform society. There began a system of discrimination amongst believers of different ideologies and individuals started drifting away from each other. Before the orthodox system could recover from this initial blow, a severe blow was dealt upon the orthodox system when the political figures and regal dynasties of Magadh started patronizing the new "religions" to stabilize their rule. This partiality and discrimination in favour of new "upstart" religions reached its Zenith in the regime of Nandas. The Nanda-Dynasty gave patronage, protection and encouragement to the "upstarts" because they very well know that the established orthodoxy would've never recognized the tyrannical rule by Nandas.

Chanakya: But Ajay, don't you fee that people and society should have freedom of choosing their religious and philosophical ideology.

Ajay: I agree. But this strife between old and new wasn't limited to philosophical opinions alone. This was fomenting a new change in the society. Along with the students, the Bhikkhus started appearing on the doors of people for alms. I do not know what effect did the rise of "bhikkhus" had on econimic prosperity of society. But what I know for sure is that the proportion of food in the bowls of Vedic students has decreased drastically. But this change did not affect the orthodox intellectuals and professors of Magadh (Brahmins). What affected them the most was the fact that the discrimination started amongst students while asking for alms (Bhiksha, begging) on the doors of various followers of various religious opinions. The Vedic students started fearing from asking for alms at the doors of Upasakas and vice-versa. The "alms" did not remain unaffected by "change of opinion" by a section of society. And why should that section of society feed Vedic students and encourage study of Vedas when they have lost their faith on supremacy of Vedas (Nastikas)?

To add to the woes, a new class of "tutors" arose amongst influential section of Magadhan society which started imparting education to students in exchange of money. Education became available at a monetary price. The stringency of vows of Brahmacharya became irrelevant and this system based on stringent way of life (that of a brahmin) started breaking. Unfortunately, the Tutors chose to live lavishly as opposed to the stringent life-style of the vedic teachers. And those vedic teachers who could not cope with this change, chose to become tutors and adopt that life-style. The number of tutors increased and students became attracted towards such tutors increasingly. The remaining professors are now slowly migrating to Kashi (Varanasi) where the Orthodox Vedic system is still strong.

Chanakya: And Professors must have chosen not to oppose this change, right?

Ajay: Those who had accepted the lifestyle of living on alms earned by begging, what moral right did they have to oppose the choice of tutors? Furthermore, the system of tutors has been practised in India since ancient times (referring to Drona of Mahabharat). When time and society was favourable, this system propagated profusely.

Chanakya: But how can the Polity of magadh be held guilty for this?

Ajay: The crime of magadh polity lies in the fact that they did not oppose this change. They did not even remain neutral and let ideologies compete with each other on the basis of merit of argument. On the contrary, the Nanda-Dynasty started patronizing all those "upstart" religions which were opposing the established Sanatana Dharma in terms of money, protection and military support. The "Upstarts" recognized the tyrannical rule of Nandas, whereas the dynasty gave them patronage. In the rule of this dynasty, the orthodox Sanatan Dharma is being discriminated and humiliated, where as upstarts are being elevated. Why? Why does the dynasty patronize only the opposing upstart religions? Why is dynasty supporting those who oppose Sanatan Dharma? It is clear, dynasty gives those opponents patronage and the dynasty recieve support of those religions en masse. The dynasty is using the religion as a weapon against Sanatan Dharma and no one is daring to call the bluff of the dynasty and oppose them. The teachers are leaving and Dharma is standing on the a cliff waiting for a final push.

3 comments:

  1. From every episode of the TV seies Chankya, one can draw analogies to the current socio political scenario of the country.

    ReplyDelete
  2. At least this time, in the name of Chanakya, one cant claim that current polity of India is ..er..Chankyan
    :P

    ReplyDelete
  3. thanku.

    blij to be checking mail on holy fridin.

    ReplyDelete