Speech of Chandragupta Maurya from TV series Chanakya
अरट्ट के कुलमुख्यों और वाहिक प्रदेश के विभिन्न गणराज्यों से आये गणमुख्यों का मैं स्वागत करता हूँ. आज वाहिक प्रदेश के अधिकांश जनपद यवनों की दासता से मुक्त हो गए हैं, और शीघ्रही अन्य जनपद भी मुक्त होंगे. अरट्ट जनपद ने अपने प्रशासन का उत्तरदायित्व मेरे कंधो पर डाला हैं, जिसे मैं सहर्ष स्वीकार करता हूँ.
परन्तु वास्तव में जनपदों को शासकों की अपेक्षा एक प्रणाली की आवश्यकता हैं. एक ऐसी प्रणाली जो जनपदीय मानसिकता की संकीर्ण राजनीती से ऊपर उठकर संपूर्ण राष्ट्र को एक परिवार, एक जनपद के रूप में देखेगी, क्योंकि जनपद राष्ट्र का उसी प्रकार अविभाज्य अंग होता हैं. तो विभिन्न जनपद अपने अस्तित्व के लिया संघर्षरत क्यों हैं आपस में? क्या अपने परिवार की किसी पीड़ित सदस्य को देखकर आप पीड़ित नहीं होते? क्या अपने परिवार की किसी अभावग्रस्त सदस्य के अभाव को पूर्ण करने का प्रयत्न नहीं करते? अपने परिवार के किसी सदस्य के सुख-दुःख में आप तठस्थ कैसे रह सकते हैं?
समाज के लिए व्यक्ति का त्याग हमारी परंपरा हैं. किसलिए शिव ने विषपान किया था? किसलिए महर्षि दधिची ने अपनी अस्थियों का दान दिया था? तो आज समाज के लिए व्यक्ति और राष्ट्र के लिए समाज त्याग करने के लिए तत्पर क्यों नहीं हैं? क्यों एक समाज को ये आभास होता हैं की वह दुसरे समाज का विनाश करके ही विकसित और पल्लवित हो सकता हैं? क्यों एक जनपद को भ्रम हैं की दुसरे जनपद का उत्कर्ष उसकी प्रगति में बाधक हैं? क्यों एक व्यक्ति को ये आभास होता है की जीवन के लिया वह दुसरे व्यक्ति से संघर्षरत हैं? क्या बीज पर्ण से संघर्षरत हैं? क्या जड़ें उसपर खड़े वृक्ष से संघर्षरत हैं? तो हम सब संघर्षरत क्यों हैं आपस में? क्या तुम्हे नहीं लगता की पर्ण, जड़, तना, शाखा सब में बीज का रूप विद्यमान हैं? पर फिर भी बीज दिखाई नहीं देता. हमारी राष्ट्रीयता भी इसी प्रकार दिखाई नहीं देती. किन्तु वह प्रत्येक भारतीय में विद्यमान हैं. यदि तुम बीज को खोजोगे तो तुम्हे अपने भीतर की राष्ट्रीयता का आभास होगा. और यदि राष्ट्रीयता का वह बीज हम सब में विद्यमान हैं, तो मैं तुमसे भिन्न कैसे हुआ?
तो क्या आवश्यकता की हमें यवनों से लड़ने की जबकि हम सब जानते हैं की इस पृथ्वी पर रहनेका अधिकार जितना हमें हैं, उतना उन्हें भी हैं. पर फिर भी हमने यवनों के शासन को अस्वीकार कर दिया. क्यों? हमने यवनों का शासन अस्वीकार किया क्योंकि हमें स्वतन्त्रता प्रिय हैं. पर क्या अर्थ हैं इस स्वतंत्रता का? क्या स्वतन्त्रता का अर्थ मात्र किसी शासन या व्यक्ति से मुक्ति हैं? क्या व्यक्ति की स्वतन्त्रता का अर्थ स्वेछा हैं? क्या व्यक्ति को समाज के बंधन स्वीकार नहीं करने पड़ते? क्या समाज को राष्ट्र के बंधन स्वीकार नहीं करने पड़ते? तो व्यक्ति को समाज और समाज को राष्ट्र के बंधन स्वीकार करने के पश्चात् भी क्यों ऐसा लगता हैं की वह स्वतंत्र हैं? क्या हैं वह "स्व" का बोध जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र में सामान्य हैं? क्या हैं वह तंत्र जिससे बंधने की पश्चात भी व्यक्ति, समाज और राष्ट्र को स्वतन्त्रता का बोध होता हैं? किसने निर्माण किया हैं वह तंत्र जिसे आप सभी स्वेछा से स्वीकार करते हैं? क्या देती हैं वह स्वतन्त्रता जिसके लिए व्यक्ति स्वयं का उत्सर्ग करने के लिए तत्पर हो जाता हैं? क्या हैं वह तंत्र जिसे हम स्व-तंत्र कहते हैं? क्यों हम स्वातंत्र्य में जीना चाहते हैं और यवनों के पारतंत्र्य में नहीं? इस "स्व" और "पर" में क्या अंतर हैं? क्यों हम यवनों के उस तंत्र को स्वीकार नहीं कर पायें?
क्योंकि हमारी उस तंत्र में आस्था हैं जिसका निर्माण हमारे तत्वचिन्तकों और मनीषियों ने किया हैं. क्योंकि हमारी उन जीवनमूल्यों में आस्था हैं जिनका निर्माण हमारे स्वजनों ने किया और समष्टि के कल्याण की वह थाती विरासत में हमारे हाथों में आती गयी जिनका निर्वाह हमारी पूर्व-पीढियों ने किया. शाश्वत सत्य और ज्ञान के प्रकाश में जीवन के जिन मूल्यों का निर्माण हमारे ऋषियों ने किया वह हमारा स्वतंत्र हैं. उन्ही श्रेष्ठ जीवनमूल्यों के प्रकाश में हम हमारे सामाजिक व्यवस्था की प्रणाली निश्चित करते आये हैं. हमारे व्यक्तिगत, सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन का आधार हमारे अपने पूर्वजों का तंत्र ही हो सकता हैं. इसीलिए हम स्वतन्त्रता के आग्रही हैं.
परन्तु क्या वह प्रणाली, क्या वह पद्धति, क्या वह स्वतन्त्रता मालव और क्षुद्रक के लिए भिन्न हैं? क्या केकय और पांचाल के लिए भिन्न हैं? क्या श्रेष्ठ मूल्यों की उपासना भिन्न-भिन्न जनपदों के लिए भिन्न-भिन्न हो सकती हैं? जिन मूल्यों की निर्मिती हमारे पूर्वजों ने की हो वह भिन्न-भिन्न जनपदों के लिए भिन्न-भिन्न कैसे हो सकती हैं? परन्तु हम उस बीज को नहीं देख पा रहे हैं जो वृक्ष के सभी अंगों में विद्यमान हैं. हम संस्कृति के उस प्रवाह को नहीं देख पा रहे हैं जो प्रत्येक जनपद के जीवनधारा में अनुप्राणित हो रही हैं. जनपद उसी विशाल वृक्ष को शाखाएँ हैं, परन्तु हमारा बीज एक ही हैं. हम अपनी जड़ों को नहीं देख पा रहे हैं और बाहरी भिन्नता को देख अपने अन्तरंग की एकात्मता को नकार रहे हैं. अनेकता में एकता को नहीं देख पा रहे हैं. या, उसे जानभूझ कर नकार रहे हैं क्योंकि उसमे राजनीतिक स्वार्थ निहित हैं.
मैं जानता हूँ की कुछ जनपदों की राजनीतिक व्यवस्था में भिन्नता हैं. मगर राजनीतिक व्यवस्था संस्कृति नहीं हैं. राजनीतिक व्यवस्था संस्कृति की पूरक हो सकती हैं, संस्कृति का पर्याय नहीं. संस्कृति का प्रवाह व्यक्ति, समाज और राष्ट्र को समुत्कर्ष का मार्ग प्रर्दशित करता हैं, तो राजनीति का दायित्व भी व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का उत्कर्ष ही हैं. तो क्यों व्यक्ति व्यवस्था के नाम पर संघर्ष करता हैं? संभवतः इसलिए की वह व्यक्ति और समाज में समस्त हो नहीं देख पाता. अथवा इसलिए की उसका व्यक्तिगत स्वार्थ उसे संघर्ष करने के लिए प्रेरित कर रहा हैं. और इसी व्यक्तिगत स्वार्थ और एकात्मता के भाव के अभाव के कारण हमें यवनों के समक्ष अपना स्वाभिमान समर्पित करने के लिए विवश कर दिया था.
यवनों ने भिन्न-भिन्न जनपदों के आस्था के भेद को नहीं देखा था. आक्रान्ताओं ने सभी के साथ एक जैसा व्यवहार किया था. दुर्भाग्य ही था की सभी जनपदों ने मिलकर यवनों का सम्मिलित रूप से प्रतिकार नहीं किया. क्यों?? क्योंकि हममे राष्ट्रीय चरित्र का अभाव था. यदि सभी जनपदों ने राष्ट्र के रूप में संगठित होकर यवनों का प्रतिकार किया होता तो क्या यवनों के लिए इस धरा पर विजय पाना संभव था? यदि सिन्धु की रक्षा का दायित्व सभी जनपदों के लिया होता तो क्या यवनों को सिन्धु को पार कर पाना संभव था? पर कठ, मद्रक, क्षुद्रक और मालव गणराज्यों को ये विश्वास नहीं हो रहा था की उनके प्रदेशों की सीमाओं का द्वार भी तक्षशिला हैं.
जहाँ तक हमारी संस्कृति का विस्तार हैं, वहां तक हमारी सीमाए हैं. हिमालय से समुद्र पर्यंत ये संपूर्ण भूमि हमारी अपनी भूमि हैं, हमारा अपना राष्ट्र हैं. और इस राष्ट्र की रक्षा हम नहीं करेंगे तो इस राष्ट्र की रक्षा कौन करेगा. यदि हमने अबभी संगठित होकर राष्ट्र के रूप में अपना परिचय नहीं दिया तो आक्रान्ताओं का पुनरागमन हो सकता हैं और इतिहास की पुनरावृत्ति. यदि हम अबभी संगठित नहीं हुए तो आक्रान्ताओं का मार्ग प्रशस्त हैं. आवश्यकता हैं हमें एक छत्र के नीचे एकत्र होने की. ताकि ये राष्ट्र सुदृढ़ और सक्षम हो, शक्तिशाली हो, गौरवशाली हो, और हम अमृत के अमर्त्य पुत्र कह सकें की प्रशस्त पुण्य-पंथ हैं, बढे चलो बढे चलो..
Translation -
"I welcome the elders of Aratta Kingdom (not to be confused with Armenian province) and representatives of various city-states and kingdoms from Bactria and Northwest frontier Province of India (Vaahik = Baalhika = Balkh = modern day Afghanistan). Most of the kingdoms and states of this region are now liberated from Greek occupation. Those remaining shall be liberated soon. Aratta kingdom has appointed me as their administrative head, an honour which I cordially accept.
However, the provinces and states need a system, rather than a ruler; a system which rises above the parochial and narrow-minded outlook of provincial form of polity and views this entire Rashtra as one system, one family because that is exactly how a province and a state is indespensibly related to Rashtra. Why are then different provinces and states in continual state of conflict with each other? Won't your heart move in pain when you see your kin in pain? Won't your reach out to help some under-privilaged member of your family? How can you stay neutral in good and bad times of your family members?
Individual sacrificing for the greater good of the society has been our tradition? Why else did Shiv consumed the poison? Why else did sage Dadhichi donate his skeleton? Why is society not ready to sacrifice some of their personal interests and pursuits for the greater good of the community? And why isn't society ready to let gor few of their interests for the greater good of Rashtra? Why does a society believe ardently that its upheavel is possible only by the deterioration of some other community? Why provinces think that the progress achieved by some other province is detrimental to its own rise? Why does in individual display such narrow understanding about inevitibility of violent conflict with other individual for his own survival?
Does a seed display any such conflict with the leaves? Are the roots conflicting with stem and entire tree standing above? Why are we in state of conflict with each other? Don't you think that leaves, roots, stem, branches, flowers, fruits, everything in a tree is the essence of seed through which it originated? Yet, we cannot see the seed when we look that the tree. Our Rashtriyata is something similar to the invisible, yet all-pervasive seed. It exists in the hearts, minds and genes of every Indian. If you delve inside and look for the hidden seed, you will feel the presence of that inherent sense of Rashtriyatva simmering within you. And if this seed of Bhaaratiyavta (Indian-ness) is simmering within every individual of this land, then how am I any different from you in essence?
What was the need then, for us, to fight off the invading Greek-Macedonian Army when we know and perfectly understand that they too have as much right to live on this earth as we do. In spite of this knowledge, we rejected the Greek rule. Why? Because we love freedom. We love independence. We love Self-rule (Swa-Tantra = Self-system). But what does this self-rule and freedom mean?
Does freedom merely means liberation from the political supremacy of certain individual? Does an independent and free individual mean one who can do whatever he feels like doing? Does an individual not need to accept the rules, prohibitions, bondages and responsibilities of society? Does society not need to accept the rules, bondages and responsibilities of Rashtra? Why then an individual bound by society and society bound by Rashtra, feel the freedom and independence? What is the understanding of "Self" which runs common in individual, society and Rashtra? What is that system which gives individual, society and Rashtra a feeling of freedom in spite of the bondage?
Who created that system which we all accept to get bound by willingly? What does this "freedom give that individual sacrifice their lives for its attainment? What is that system, that rule that we refer to as "Self-Rule"? Why do we preferred to live in this "Self-Rule" and rejected the "Foreign-Rule" of the invaders? What is the difference between this "Self" and "Foreign/Non-self"? Why did we not accept that System of invading greeks?
Because, we uphold that system which was created by our thinkers, philosophers and wise-men. Because we have faith in those values of life which were discovered and expounded by our ancestors. That system which was designed for benefitting individual and society was handed over to us as heritage by our fore-fathers. That set of values and world-views which were expounded by our sages in the light of eternal truth and knowledge, is our Self-System and Self-Rule. We have been ascertaining our socio-economic-political system in the light of those values. The value-system expounded and modified by our ancesters can alone be the bed-rock of our personal, social and Rashtriya life. Hence we vouch for Freedom and Self-rule.
But are those set of core values different for different city-states and provinces? Is that set, that system different for Malav (Multan), Kshudrak (northern Sindh)? Is it different for Kekay (northern Punjab), Panchal (Souther Punjab, Haryana and western UP) and rest of India? Is that set of core values and world-views be different for different cities and provinces?
However, we are not able to see the seed which is present within everybody of us. We are not able to see the river of Sanskriti which is flowing through the hearts and minds of every individual and province, thus gloriously manifesting itself, if only we care to witness. Provinces and individuals are the branches and leaves of same giant tree which is manifesting the essence of the one seed in this grand and diverse image. We are unable to see our roots and negating the inherent unity present in us solely based on apparent external differences. We are not able to see the unity in diversity of our Rashtra; or we are willingly neglecting it to assuage our personal and political vested interests.
I understand and agree the existence of major differences between political frame-work and local cultures of different provinces. However, political system is not Sanskriti. Politics and local traditions are complementary to the inherent Sanskriti, but can never supplant the Sanskriti totally and present themselves as an option to Sanskriti.The current of Sanskriti goads individual, society and Rashtra on the path of enlightenment and progress, and this is the aim of polity as well. Why are then we conflicting with each other in the name of system? Perhaps because that individual is not able to see his reflection in society and Rashtra. Or perhaps because of his vested selfish interests. This very lack of integration has resulted in our capitualting our freedom, our honour and dignity in front of invaders.
It should be noted that the invaders did not distinguish between us based on our subtle differences in political frameworks and local traditions and culture. They identified all of us as Indians and treated everybody of us who came in their way with equal brutality and suppression. It was the misfortune of ths land that all the kingdoms and states did not put forth an united front against invading macedonian army. Had we done so, would it be possible for them to invade India and cross Sindhu River? But Kath, Malav, Kshudrak, Madrak, Kekay were unable to grasp this common-sense that Taxila is door to thier kingdoms as well.
The boundaries of our Rashtra lie as far as the expanse of our Sanskriti. This entire land from Himalayas to Indian ocean is our own Rashtra, is the seat of our own Sanskriti. It is nobody's but our duty to protect the sovereignty of this land. If we do not unite now, invasions will be recurring and the history will be repititive. What is required primarily is to unite politically under one umbrella, thus facilitating the rise and revival of this glorious Rashtra."
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Comments
Although there is no historic evidence that this speech were actually the words of Chandragupt, the actions of Chandragupt and Chanakya after the consolidation of Magadh were on similar lines. They were the first dynasty in Late period of ancient Indian history which thought of and succeded in politically unifying entire Indian subcontinent for 150 years. This is said to be the first golden age of India in late period of ancient history.
Tremendous thought process is involved on the behalf of Dr. Chandraprakash Dwivedi who wrote, directed, produced and acted in this epic TV serial as title role of Chanakya. This TV series has emerged as a classic, the credit goes to this marvelously knowledgeable individual. I have feebly tried to translate this awesome speech for the readers of my blog. Pardon me for any insufficiencies. The importance of this speech is that it explains the subtle fact that the Sanskriti based unity has been prevalent in India since ancient times and this unity has manifested itself time and again thoughout the annals of history. Those who negate the existence of this unity and hold that India came into existence after British occupation, this speech is one of the firm answers given to their rebuttal.
I quote my statement again which I made few posts ago - India is not merely a nation-state. It is an eternally existent and coherent phenomenon, an idea, which values the set of Dharma-based meme-complex as its core Sanskriti. This speech was extremely instrumental in increasing my understanding of this complex phenomenon called India.
For Non-Indian readers of blog - The terms "Sanskriti" and "Rashtra" vaguely translate to Civilization and Nation. But these two words do not convey everything which is conveyed by Sanskriti and Rashtra and the essence is lost in translation. If France and Germany are nations, then Europe is something similar to Rashtra. India is a Rashtra on vaguely similar lines, although not accurately. In spite of all the linguistic and cultural differences, all the nation-states of Europe in essence are part of same Rashtra and follow same Sanskriti which is set of values at the core of any civilization.