Saturday, August 14, 2010

Chitto jetha Bhayashunyo - Where the mind is without fear

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One of the charismatic poem by Gurudev Rabindranath Thakur from his Geetanjali. On the eve of 64th independence day of India, I convey my regards and wishes to fellow Indians.


Original Bengali version:

চিত্ত যেথা ভয়শূন্য উচ্চ যেথা শির,
জ্ঞান যেথা মুক্ত, যেথা গৃহের প্রাচীর
আপন প্রাংগণতলে দিবস-শর্বরী 
বসুধারে রাখে নাই খণড ক্ষুদ্র করি,

যেথা বাক্য হৃদযের উতসমুখ হতে 
উচ্ছসিয়যা উঠে, যেথা নির্বারিত স্রোতে,
দেশে দেশে দিশে দিশে কর্মধারা ধায়
অজস্র সহস্রবিধ চরিতার্থতায়,

যেথা তুচ্ছ আচারের মরু-বালু-রাশি
বিচারের স্রোতঃপথ ফেলে নাই গ্রাসি -
পৌরুষেরে করেনি শতধা, নিত্য যেথা 
তুমি সর্ব কর্ম-চিংতা-আনংদের নেতা,

নিজ হস্তে নির্দয় আঘাত করি পিতঃ, 
ভারতেরে সেই স্বর্গে করো জাগরিত ||

Devanaagari transliteration

चित्त जेथा भयशून्य ,उच्च जेथा शिर ,
ज्ञान जेथा मुक्त जेथा गृहेर प्राचीर
आपन प्रांगणतले दिवसशर्वरी
बसुधारे राखे नाइ खण्ड खण्ड क्षुद्रकरि,

जेथा वाकय हृदयेर उत् समुखहते
उच्छ्वसिया उठे , जेथा निर्वारित स्रोते
दशे देशे दिशे दिशे कर्मधारा धाय
अजस्र सहसबिध चरितार्थताय-

जेथा तुच्छ आचारेर मरुबालुराशि 
बिचारेर स्रोतःपथे फेले नाइ ग्रासि,
पौरुषेरे करे नि शतधा-नित्य जेथा
तुमि सर्व कर्म चिन्ता आनंदेर नेता-

निज हस्ते निर्दय आधात करि पितः,
भारतेर सेइ स्वर्गे करो जागरित।


Hindi Translation - कवी शिवमंगल सिंह "सुमन" द्वारा

जहां चित्‍त भय से शून्‍य हो 
जहां हम गर्व से माथा ऊंचा करके चल सकें
जहां ज्ञान मुक्‍त हो 
जहां दिन रात विशाल वसुधा को खंडों में विभाजित कर 
छोटे और छोटे आंगन न बनाए जाते हों 

जहां हर वाक्‍य ह्रदय की गहराई से निकलता हो
जहां हर दिशा में कर्म के अजस्‍त्र नदी के स्रोत फूटते हों
और निरंतर अबाधित बहते हों 
जहां विचारों की सरिता 
तुच्‍छ आचारों की मरू भूमि में न खोती हो
जहां पुरूषार्थ सौ सौ टुकड़ों में बंटा हुआ न हो 
जहां पर सभी कर्म, भावनाएं, आनंदानुभुतियाँ तुम्‍हारे अनुगत हों

हे पिता, अपने हाथों से निर्दयता पूर्ण प्रहार कर
उसी स्‍वातंत्र्य स्‍वर्ग में इस सोते हुए भारत को जगाओ


English Translation

Where the mind is without fear 
and the head is held high; 
Where knowledge is free; 
Where the world has not been 
broken up into fragments by the tireless efforts of men; 

Where words come out from 
the depth of truth; 
Where the currents of tireless striving originate 
and flow without hindrance all over;

Where the clear stream of reason and thoughts has not lost its way into the dreary 
desert sand of lowly habits and deeds; 
Where the valour is not divided in 100 different streams;
Where all the deeds, emotions are blissfully given by you

My father, strike the sleeping India without mercy,
so that she may awaken into such a heaven.

Monday, August 09, 2010

Conversation between Chanakya and Ajay - Reflection on Current polity of India.

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Excerpt from television series of Chanakya. A conversation which touched my heart and set me thinking about its modern relevance in republic of India.





आचार्य विष्णुगुप्त: अजय, पाटलिपुत्र की क्या स्थिति हैं?


आचार्य अजय: विष्णु, पाटलिपुत्र के विद्वान आचार्य, एक एक करके पाटलिपुत्र से प्रयाण कर रहे हैं. 


आचार्य विष्णुगुप्त: क्यों?


आचार्य अजय: अब ऐसा लगने लगा हैं की पाटलिपुत्र में शिक्षक अपनी गरिमाके साथ नहीं रह सकता.


आचार्य विष्णुगुप्त: कारण?


आचार्य अजय:कारण? कारणोंको ढूंढनेका प्रयास करता हूँ तो समझ में नहीं आता दोष नन्द की नीतियों को दूं, या समस्त कारणों को अनिवार्य परिवर्तन समझकर स्वीकार कर लूं. 


आचार्य विष्णुगुप्त: ऐसा क्या हैं जो समझ में नहीं आ रहा हैं, अजय?


आचार्य अजय: विष्णु, शिक्षक को पाटलिपुत्र में इतना असहाय मैंने पहले कभी नहीं देखा था जितना अब देख रहा हूँ. बाल्यकाल से मैं मगध में हो रहे परिवर्तनों का साक्षी रहा हूँ. और जब जब मैंने मगध में हो रहे परिवर्तनों के इतिहास पर दृष्टि डाली हैं तो पाया हैं की समाज को किसी परिवर्तन की प्रतीक्षा थी.और तथागत के धम्म और महावीर के सम्प्रदाय ने मगध को इस परिवर्तन की भूमि प्रदान की. मगध के समाज ने तथागत एवं महावीर के दर्शन को स्वीकार करना प्रारंभ किया. और इन दोनों के विचारों से अनुप्राणित समाज का एक वर्ग उपासक के रूप में उभर कर सामने आया. नविन सम्रदायिक दर्शन और और उपासक वर्ग के उदय के कारण उन परंपराओं और प्रणालियों को ठेंस पहुंची जिनका पालन समाज अबतक करते आया था. धार्मिक क्षितिज पर नविन संप्रदायों के उदय से समाज को ऐसा लगने लगा की अब समाज वर्णबंधन की दासता से मुक्त हो रहा हैं. इन नविन मतों को उनके दार्शनिक धरातलपर कितने लोगोंने स्वीकार किया, यह कह पाना कठिन हैं. पर ये स्पष्ट था की समाज के एक वैभवसंपन्न वर्ग ने पुरातनवादियों द्वारा उत्पीडन और शोषण से मुक्ति एवं सामाजिक समता स्थापित करने के प्रयास में नविन संप्रदायों को स्वीकार किया. और इसी वर्ग ने प्राचीन परंपराओंकी अवहेलना करना प्रारंभ किया. अतः अपनी परंपराओं के प्रति आस्थावान वर्ग ने इन उद्यमान दार्शनिक मतों का खंडन करना प्रारंभ किया. 


परिणामस्वरूप, सांप्रदायिक मतों में घर्षण प्रारंभ हुआ, सांप्रदायिक आस्था के नाम पर समाज में विघटन की प्रक्रिया सक्रिय हुई. और समाज में विभिन्न उपासना पद्धति के उपासकों में भेद होने लगा. व्यक्ति व्यक्ति से कटने लगा. और परंपरावादी वर्ग, इससे पहले की वह इस आघात से संभले, उसपर एक और कठोर आघात तब हुआ, जब अपनी सत्ताको स्थिर करने में प्रयत्नशील मगध के राजपरिवारों ने अपने स्वार्थ के लिए, सम्प्रदायोंके प्रति पक्षपाती दृष्टिकोण अपनाया. और नंदों के शासनकाल में सांप्रदायिक पक्षपात अपने चरमोत्कर्ष पे पहुंचा. नंद्कुल ने परंपरावादियों से अपनी रक्षा के लिए परंपरा विरोधियों को प्रोत्साहन और राजनैतिक संरक्षण दिया. जब की वे भलीभांति जानते थे की मगध की सामाजिक एवं राजकीय परम्पराएं कभी उनके शासन को स्वीकार नहीं करेंगी. और सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को रोक पाने में असमर्थ अपनी प्राचीन परंपराओं और जीवन-मूल्यों का निर्वाह करनेवाला वर्ग स्वयं को पराजित महसूस करने लगा. 


आचार्य विष्णुगुप्त: क्या तुम्हे नहीं लगता अजय के  दर्शन के धरातल पर, व्यक्ति व समाज किसीभी सांप्रदायिक मत का स्वीकार करने के लिए स्वतंत्र हैं?


आचार्य अजय: मानता हूँ. पर नवीन और पुरातन का संघर्ष केवल मतान्तरों तक सीमित नहीं हैं, विष्णु. धार्मिक क्षितिज पर परिवर्तन की प्रक्रिया सामाजिक जीवन में धीरे धीरे एक और परिवर्तन ला रही थी. जिसके परिणाम स्वरुप अपनी प्राचीन प्रणाली का निर्वाह करनेवाले छात्रों के अतिरिक्त अब भिक्षुओं के भिक्षापात्र भी भिक्षा के लिए नित्य द्वारों पर उठने लगे. विष्णु, मैं दृढता के साथ तो नहीं कह सकता की इससे पाटलिपुत्र के परिवारों के आर्थिक व्यवस्था पर कितना प्रभाव पड़ा होगा, पर इतना मैं विश्वास के साथ अवश्य कह सकता हूँ की इससे छात्रों के भिक्षापात्र में अन्न का भार कम हुआ हैं. 


पर पाटलिपुत्र का आचार्य-वर्ग इससे विचलित नहीं हुआ. जिस तथ्य से पाटलिपुत्र का आचार्यवर्ग प्रभावित हो रहा था, वो ये की पाटलिपुत्र में अब भिन्न-भिन्न साम्प्रदायिक आस्था वाले परिवारों के द्वार पर छात्रों में भेद होने लगा. और अपने प्राचीन परंपराओं में आस्था रखने वाले छात्र, उपासकों के द्वारों पर भिक्षा मांगनेसे कतराने लगे. और उपासकों की संतानों ने भी भिक्षा मांगने के लिया उपासकों के घरों को प्राथमिकता देना प्रारंभ किया. स्थिति यहाँ तक पहुंची की अब भिक्षा सांप्रदायिक विचारों से अप्रभावित नहीं रहीं. और जब समाज की सांप्रदायिक आस्था में परिवर्तन हुआ, तो ये परिवर्तित वर्ग उन परंपराओं का निर्वाह क्यों करे जिनमे उसकी श्रद्धा नहीं रहीं. और जिनकी अब वेदों में आस्था नहीं रही, वे अब वेदों के अध्ययन और यज्ञ को प्रोत्साहन क्यों दें? और भिक्षा के अन्न से उदार्निर्वाह करनेवाला शिक्षक इन स्थितियों में परिवर्तनों को असहायता पूर्वक देखता रहा. और नाही मगध की सत्ता और नाही मगध का उन्नतिशील समाज इन परिवर्तनों में ये देख पा रहा था की अपनी प्राचीन परंपराओं के प्रति समर्पित मगध के अनेक निर्धन शिक्षक पर्याप्त वेदाभ्यासी छात्रों के अभाव में कठिनाई और आभाव का जीवन जी रहे थे. 


ये कम था, की धन लेकर शिक्षा देनेवाले उपाध्यायों के वर्ग को पाटलिपुत्र के संपन्न वर्ग ने प्रोत्साहन देना प्रारंभ किया. और अपने प्राचीन परंपराओं को छोड़ रहे परिवारों में इन्ही उपाध्यायों से शिक्षा लेनेका प्रचलन प्रारंभ हो गया. शिक्षा स्वर्ण के बदले में सुलभ होने लगी. ब्रह्मचर्य के व्रतों की उपेक्षा होने लगी. और इसी के साथ ब्रह्मचारियों द्वारा भिक्षा मांगकर छात्र-जीवन निर्वाह करने की प्रणालीका टूटना प्रारंभ हुआ. दुर्भाग्य से उपाध्यायों ने आचार्यों सा कठिन जीवन जीने की अपेक्षा सम्पन्नता से जीवन जीने का मार्ग अपनाया. और जो आचार्य इन बदल रही परिस्थितियों से जूझ नहीं पाए, उन्होंने भी उपाध्यायों की जीवन शैली को अपनाना शुरू कर दिया. फलस्वरूप उपाध्यायों की संख्या बढती गयी, छात्र भी इन उपाध्यायों के प्रति आकर्षित होते गए. और इन परिस्थितियों में विष्णु, पिछले कुछ वर्षों में आचार्यों ने काशीकी ओर परायण करना प्रारंभ कर दिया, जहाँ आचार्य परंपरा दृढ हैं. जहाँ वेदज्ञ आचार्यों का आजभी सम्मान होता हैं. 


आचार्य विष्णुगुप्त: और इन परिस्थितियों में पाटलिपुत्र के आचार्य वर्ग ने उपाध्यायों का विरोध भी नहीं किया होगा?


आचार्य अजय: जिसने भिक्षा के अन्न पर पलने की प्रवृत्ति को स्वीकृति दी हो, वह आचार्य उपाध्यायों का विरोध क्यों करेगा? और उपाध्यायों की परंपरा तो अपने समाज में प्राचीन काल से विद्यमान हैं, विष्णु. महत्व और प्रोत्साहन मिलते ही वो आचार्य-व्यवस्था का पर्याय बन गयी. 


आचार्य विष्णुगुप्त: पर इसमें मगध की सत्ता को सर्वथा दोषी कैसे ठहराया जा सकता हैं?


आचार्य अजय: पर मगध की सत्ता ने कभी इन परिवर्तनों का विरोध भी तो नहीं किया. उलटे नंदकुल का राजपरिवार भिन्न-भिन्न संप्रदायों को राजकीय सुरक्षा, अनुदान, समबल प्रदान कर उनका समर्थन प्राप्त करते रहे. उन्हें प्रसन्न करते रहे. धनानंद के राज में शिक्षक पीड़ित हो रहे हैं और नविन संप्रदायों का स्वागत हो रहा हैं. क्यों? क्यों मगध की सत्ता केवल इन्ही संप्रदायों के प्रति उदारता दिखा रही हैं? क्यों मगध की वर्त्तमान सत्ता उनका समर्थन प्राप्त कर रही हैं जो परंपरावादियों का विरोध कर रहे हैं? स्पष्ट हैं, सत्ता उन्हें सुरक्षा दे रही हैं और और वे नंदों के शासन को समर्थन. नंद संप्रदायों का अपने हित के लिए शस्त्रों के रूप में उपयोग कर रहे हैं. और किसीमे साहस नहीं हैं की वह नंदों से टकराए. एक एक कर, आचार्य जा रहे हैं. और शिक्षा पतन के कगार पे खड़ी किसी धक्के की प्रतीक्षा कर रही हैं. 
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Vishnugupta (Chanakya): Ajay, what is the situation in Patliputra?

Ajay: Vishnu, the learned teachers and professors of Patliputra are moving out of Magadh one by one.

Chanakya: Why so?

Ajay: It seems that Teachers can no longer stay in Magadh with dignity.

Chanakya: Why?

Ajay: I don't know whom to blame here? Nanda's policies OR changing tides of time, which have to accept and move on.

Chanakya: What is it that is so difficult to comprehend, Ajay?

Ajay: Vishnu, I have never seen teachers (Brahmins) so helpless in Magadh before. I have been witnessing the changes in Magadhan society since childhood. Upon studying the history of Magadha and the patterns of changes, I have concluded that society was in need of some change. The philosophy and ideology of Siddharta Gautam and Mahavir provided the ground the necessary change in Magadh. The magadhan society started adopting the ideology of Buddha and Mahavir. Inspired by the thoughts of these two great men, a new section of society evolved and came into existence in form of "Upasakas (followers)". Due to the rise of new religious philosophy and followers, the orthodox system and philosophy which was being followed by society till date was hurt. The rise of new religions on the socio-economic horizons of Magadha made people believe that the "Varnashrama system" will collapse. 

I do not know how many people accepted these new "religion" purely on philosophical basis. But what is clear is that a section of rich society started patronizing these new ideologies to get rid of oppression by the orthodox varnashrama system. And this strata of society started castigating the criticizing the orthodox system. As a reply, the upholders of orthodox system started criticizing and debating with the proponents of new system too. This resulted in friction amongst different opinions of society. And fissures based on faith and beliefs started emerging in previously uniform society. There began a system of discrimination amongst believers of different ideologies and individuals started drifting away from each other. Before the orthodox system could recover from this initial blow, a severe blow was dealt upon the orthodox system when the political figures and regal dynasties of Magadh started patronizing the new "religions" to stabilize their rule. This partiality and discrimination in favour of new "upstart" religions reached its Zenith in the regime of Nandas. The Nanda-Dynasty gave patronage, protection and encouragement to the "upstarts" because they very well know that the established orthodoxy would've never recognized the tyrannical rule by Nandas.

Chanakya: But Ajay, don't you fee that people and society should have freedom of choosing their religious and philosophical ideology.

Ajay: I agree. But this strife between old and new wasn't limited to philosophical opinions alone. This was fomenting a new change in the society. Along with the students, the Bhikkhus started appearing on the doors of people for alms. I do not know what effect did the rise of "bhikkhus" had on econimic prosperity of society. But what I know for sure is that the proportion of food in the bowls of Vedic students has decreased drastically. But this change did not affect the orthodox intellectuals and professors of Magadh (Brahmins). What affected them the most was the fact that the discrimination started amongst students while asking for alms (Bhiksha, begging) on the doors of various followers of various religious opinions. The Vedic students started fearing from asking for alms at the doors of Upasakas and vice-versa. The "alms" did not remain unaffected by "change of opinion" by a section of society. And why should that section of society feed Vedic students and encourage study of Vedas when they have lost their faith on supremacy of Vedas (Nastikas)?

To add to the woes, a new class of "tutors" arose amongst influential section of Magadhan society which started imparting education to students in exchange of money. Education became available at a monetary price. The stringency of vows of Brahmacharya became irrelevant and this system based on stringent way of life (that of a brahmin) started breaking. Unfortunately, the Tutors chose to live lavishly as opposed to the stringent life-style of the vedic teachers. And those vedic teachers who could not cope with this change, chose to become tutors and adopt that life-style. The number of tutors increased and students became attracted towards such tutors increasingly. The remaining professors are now slowly migrating to Kashi (Varanasi) where the Orthodox Vedic system is still strong.

Chanakya: And Professors must have chosen not to oppose this change, right?

Ajay: Those who had accepted the lifestyle of living on alms earned by begging, what moral right did they have to oppose the choice of tutors? Furthermore, the system of tutors has been practised in India since ancient times (referring to Drona of Mahabharat). When time and society was favourable, this system propagated profusely.

Chanakya: But how can the Polity of magadh be held guilty for this?

Ajay: The crime of magadh polity lies in the fact that they did not oppose this change. They did not even remain neutral and let ideologies compete with each other on the basis of merit of argument. On the contrary, the Nanda-Dynasty started patronizing all those "upstart" religions which were opposing the established Sanatana Dharma in terms of money, protection and military support. The "Upstarts" recognized the tyrannical rule of Nandas, whereas the dynasty gave them patronage. In the rule of this dynasty, the orthodox Sanatan Dharma is being discriminated and humiliated, where as upstarts are being elevated. Why? Why does the dynasty patronize only the opposing upstart religions? Why is dynasty supporting those who oppose Sanatan Dharma? It is clear, dynasty gives those opponents patronage and the dynasty recieve support of those religions en masse. The dynasty is using the religion as a weapon against Sanatan Dharma and no one is daring to call the bluff of the dynasty and oppose them. The teachers are leaving and Dharma is standing on the a cliff waiting for a final push.

Friday, August 06, 2010

गंगा बहती हो क्यों - Ganga Behti ho Kyon?

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बिस्तीर्ण वरोरे, अफंख्य जनोरे,
हाहाकार सुनियो निशब्दे निरवे 
भूराल हुई तुमी, भूराल हुई बुरा कि ओर....

विस्तार हैं अपार, प्रजा दोनों पार, 
करे हाहाकार निशब्द सदा, 
ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यूँ?? - 1

नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई,
निर्लज्ज-भाव से बहती हो क्यों??
इतिहास की पुकार करे हुंकार, ओ गंगा की धार निर्बल-जन को 
सबल संग्रामी समग्रोगामी बनाती नहीं हो क्यों?? - 2

अनपढ़जन, अक्षरहीन, अनगिन जन खाद्यविहीन,
नेत्रविहीन देख मौन हो क्यों?
इतिहास की पुकार करे हुंकार, ओ गंगा की धार निर्बल-जन को 
सबल संग्रामी समग्रोगामी बनाती नहीं हो क्यों?? - 3

व्यक्ति रहे व्यष्टि-केंद्रित, सकल समाज व्यष्टित्व-रहित,
निष्प्राण समाजको तोडती न क्यों?
इतिहास की पुकार करे हुंकार, ओ गंगा की धार निर्बल-जन को 
सबल संग्रामी समग्रोगामी बनाती नहीं हो क्यों?? - 4

स्त्रोतस्विनी क्यों न रही? तुम निश्चय चेतन नहीं...
प्राणों में प्रेरणा देती न क्यों?
उन्मत अवनी कुरुक्षेत्र बनी, 
गंगे जननी नवभारत में, (तुम) भीष्म-रूपी सूत समरजयी, जनती नहीं हो क्यों? - 5

कवी - पंडित नरेन्द्र शर्मा
गायक - श्री भूपेन हजारिका

Countless commons are crying out on both the banks of your unfathomable expanse,
yet silently Oh Ganga, why do you keep on flowing? - 1

Morality is destroyed, Humanity has been corrupted,
Yet shamelessly why do you continue flowing?
Why don't you empower the weak and make them progressive, in spite of the approaching roaring tides of history? - 2

Countless men, illiterate, uneducated and hungry,
Why do you silently turn a blind eye towards them?
Why don't you empower the weak and make them progressive, in spite of the approaching roaring tides of history? - 3


(in modern times) Individual stays in small circle, entire-society is lacking identity,
Why don't you break and destroy this already lifeless society? 
(so that new beginning can be made - hint towards prayala)
Why don't you empower the weak and make them progressive, in spite of the approaching roaring tides of history? - 4

Why didn't you remain full of life,
 (it seems like) for sure you are lifeless..
Why don't you inspire the "life-force" within yourselves and society?
Defiant earth has become Kurukshetra, O mother Ganga why don't you conceive again a victorious son like Bheeshma for New India 
(to happen)? - 5


Poet - Pandit Narendra Sharma
Singer and Composer - Bhupen Hazarika

Thursday, August 05, 2010

The Deracination series - 6 - The Age of Dualism

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The Role of "Dvaita" in Indic socio-polity.

The age of dualism ushered in the world and in India with patronization of Vaishnava pantha by Gupta rulers. Whilst opinion of Dualism (Dwaita-mat द्वैतमत) was existent in India for long time, this patronization started a process in India which led to profound social and political changes in Indic sphere.


ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या जीवो ब्रह्मैव ना पर: - Brahma Satyam Jagat Mithya Jeevo brahmaiva naaparah

Brahman - ब्रह्मन - literally, it means one which expands.

Satyam- one which is eternal, changeless and existent

Jagat (Universe/World)- Ja + Ga
Ja - jaayate (to arise, originate, born)
ga - gamana: - ga - (one which goes/moves or changes)

It means, one which is born (janana) out of gati (speed/change) is Jagata: That is Universe is said to have come into existent due out of constant change.

Mithya- has word root as 'Mith'. This is the most interesting and illuding term on this phrase. As given by Apte Sanskrit Online dictionary, Mith - to associate with; to unite; to hurt; to understand; to wrangle; to grasp

Brahma Satyam Jagat Mithya, following meanings are deduced.

1) Brahman is existent, jagat is associated (with Brahman)
2) Brahman is Existent, jagat is united (with Brahman)
3) Brahman is existent, jagat is hurt (does not make sense)
4) Brahman is existent, jagat is understood by (brahman)
5) Brahman is existent, jagat is wrangled/tended/herded (by brahman) (wrangle = to herd, to tend)
6) Brahman is existent, jagat is grasped by brahman

"That one which originates/exists due to constant change (jagat) is associated with/United with/being tended by (mithyA) Brahman which is changeless existence (satya) - Brahma Satyam, jagat MithyA..."

Furthermore, the interpretation of word Mithya determines whether a person is advaitin OR dvaitin OR vishishtadvaitin.

If Mithya is taken as United, then a person is advaitin (brahman and jagat are united and satya).  This is in sync with Sarvam Khalu Idam Brahma (everything that exists is Brahman)

If mithya is takes as association, then the person is vishishtadvaitin. (brahman is satya and jagat is associated with satya, but not completely satya). 

If mithya is taken as wrangled (to tend), then, he becomes a dvaitin (brahman is satya, jagat is being wrangled/tended/herded (by brahman)). Here, World is being herded by the separate herder that is God.

Thus we can see, differential interpretation of this phrase by Shankara eventually ends up in conjuring vastly different world views towards life and universe.

The third interpretation (emboldened) of this sentence is the hallmark of a theistic Dwaita-mat. The atheistic dualism "Saamkhya-Yoga" does not require a hypothesis of a supreme herder.

The age of monotheistic Dualism first ushered in by Persian sage Zaratushtra. Later these ideas were taken up by Moses and Judaism began. Later Christianity and Islam with all their flavours followed. To the east of Sindhu, however the system remained slightly different.

The patronization of Vaishnava maarga (by Guptas according to traditional dating methods) started almost around same time as popularity of Christianity started increasing in middle-east. A century later monotheistic dwaita-mata was accepted by Emperor Constantine. 

Around 500 AD, the bhakti movement started with Alvar saints of Tamil Nadu and spread northwards. The homogenization of Adi Shankaracharya and defeat of all other atheistic systems (both Aastika and Nastika atheism) is the hall-mark of the period from 400 AD to 900 AD. The Indic civilization was at the height of its sovereignty and Arabs were defeated by Pratihara Rajputs and Rashtrakutas. The global climate started changing towards a more "dry" period which increased the susceptibility of India towards raids from Northwest. Furthermore, lack of rains too make people more "pious" as the idea of caretaker father is essential for people to keep on going.

The monotheistic Dualism comes in three flavours. Weak (Vaishnava, Shaiva etc), intermediate (Sikh), strong (Abrahmic religions). The Dwaita schools of Indian origin refrained from inculcating a strong dualistic character as seen in Abrahamic religions. The Dwaita system has plenty of salient features which makes it extremely effective tool of dealing with distressed OR resourceless people. Furthermore, Dwaita system enables the features like Love, artistic display of emotions towards the "shepherd", music, sense of total surrender to the "alpha-male" in the sky. Thus, the potential for cultural and artistic evolution is greatest in the age of "dwaita". The age of Dwaita sometimes hinders the scientific inquiry though. Since the emphasis and the "mood" of overall system is towards "surrender (Sharanaagati)", the scope of free-rationalistic inquiry is somewhat limited. This is most evidently seen in Abrahmic paths. But this is also seen in Indic paths of weak and intermediate monotheistic dualism. The scientific and technological achievements are seen to be steadily decreasing with advent of Dwaita-System in Indian subcontinent.

The advent of this system however enabled India to remain Dharmic while facing the onslaught of strong monotheistic memes. In form of "Sikh Pantha", India also found an answer to reply to abrahmic monotheistic memes in their own coin. There were few peculiar traits which were inculcated by Indic politicians in the age of "dualism".

The ceremony of king's coronation is in Vedas upon which the "Raaja" is declared as form of Vishnu on earth. However, the status of "Vishnu" in Vedas is that of a 12th associate of Indra. Vishnu is the 12th Adtiya who derives energy from "Indra" and hence called "Upendra (Upa+Indra - Subordinate of Indra)". The function of Vishnu in Vedas is to assist the "indra" in maintaining the order on earth and kill the Vritrasura. Similar is the function of "Vishnu's avataara" on earth in form of a king who is coronated. 

With advent of Vaishnavism, the trinity of Brahma-Vishnu-Shiva became more popular than Vedic gods of Indra family. Yet, the rituals remained the same and Kings started considering themselves as avataar of Vishnu the supreme lord on earth (as extolled by dualistic school of Vaishnavism). In later periods, people started considering and implicitly accepting all kings dharmik or not, as avataars of vishnu. The Darshan system of Akbar denotes this deracination of Indian people about their own concepts and their relevant meanings.

The strong dualistic traditions like abrahmic religions discourage the course correction of the society by rationalistic ideologies and philosophies. While dualistic traditions are great mobilizers of common man from all the social strata for a common cause, it also confers tremendous inertia which resists all the change (good and bad).

The age of dualism ended in Europe (as far as socio-polity is concerned) with renaissance and french revolution. It has begun to end in India with British conquest and emergence of Hindu reformers in Bengal and elsewhere which popularized the philosophical aspect of Advaita. With time, Samkhya, Nyaya, Vaisheshika, Bauddha and Jaina traditions will too start picking up in India.However, the Indic society (Sikhs and "Hindus") in modern times is trying to imbibe few attributes of strong monotheistic dualism in themselves as a reaction to rising level of fundamentalism in Indic Muslims and to lesser extend, Christians. This is one of the interesting and potentially dangerous trends (in long run) which we are seeing in India. I agree that it is essential and support it as long as the subsequent "calming down" of such highly emotional memes is ensured.

This is "deracination" in my opinion. The way of loosening the grip of strong monotheistic dwaita memes and subsequently defeating them is not by becoming more "fundamentalist" than them. It is be becoming more rationalistic and forceful than them. The age of "Dwaita" will sustain in India in its weak form (philosophically, Sikh pantha is only slightly stronger than vaishnava pantha, when it comes to dualism). The Dharma aspect will ensure that the remnants of Indic Dwaita schools do not become as strong as Abrahmic counterparts. However the abrahmic memes need to be toned down in their strength of dualism. This requires rational use of force as seen in Europe. The method may not be the same for India, but the idea still is.